Thursday, March 19, 2009

मतदाताओं की नजर से गिरते ही जा रहे निर्दलीय प्रत्याशी

'सुनील दत्त शर्मा'
देश की चुनावी राजनीति में निर्दलीय प्रत्याशियों की साख लगातार गिरती जा रही है। आलम यह है कि बीते 52 वर्षों में मतदाताओं ने लोकसभा में उनकी तादाद 37 से पांच पर ला दी। देश में मंडल-कमंडल की राजनीति के बाद के दौर में क्षेत्रीय दलों का तेजी से उभार हुआ। इस दौर में तो मतदाताओं ने निर्दलीय प्रत्याशियों को अपनी नजरों से और गिरा दिया है। सीधे तौर पर यह बड़ी बात भले न लगती हो, लेकिन पहली (1952) से लेकर चौदहवीं (2004) लोकसभा तक के आंकड़ों पर गौर करें तो साफ हो जाता है कि हर चुनाव में निर्दलीय प्रत्याशियों की संख्या तो बढ़ती गई, लेकिन उनकी जीत की दर घटती गई। इन प्रत्याशियों की जमानत जब्त होने के आंकड़े भी हर चुनाव में बढ़ते गए।

1952 के लोकसभा चुनाव में उतरे 533 निर्दलीयों में से 37 ने जीत हासिल कर ली थी, वहीं 2004 में 5435 निर्दलीय चुनाव लड़े और सिर्फ पांच ने लोकसभा का मुंह देखा। पहली लोकसभा के चुनाव में 360 निर्दलीयों की जमानत जब्त हुई थी, तो चौदहवीं लोकसभा में यह आंकड़ा 2370 तक पहंुच गया। हालांकि आजादी के बाद शुरुआती चार लोकसभा के चुनावों में निर्दलीय प्रत्याशियों ने बेहतर रिकार्ड बनाए रखा। निर्दलीय के रूप में चुनाव लड़ कर 1957 में 42 और 1967 में 35 नेताओं ने संसद में अपने-अपने लोकसभा क्षेत्र का प्रतिनिधित्व किया। लेकिन 1977 के बाद इनकी जीत का ग्राफ गिरना शुरू हुआ।
1989 में 12 निर्दलीयों की जीत के अपवाद को छोड़ दें तो किसी भी लोकसभा चुनाव में यह संख्या नौ के ऊपर नहीं गई। बीते तीन लोकसभा चुनावों में तो निर्दलीयों की जीत का आंकड़ा पांच-छह के बीच अटका हुआ है। शायद यह हमारे नेताओं में जनता के प्रति जवाबदेही की कमी का नतीजा है।